मंगलवार, 23 जून 2009

आरटीआई अधिनियम की हिन्दी की अशुदि्धयां दूर

सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) का जब हिंदी में अनुवाद हुआ तो उसमें कई गलतियां रह गयीं थी। एक आरटीआई कार्यकर्ता ने इन अशुदि्धयों को दूर कराने के लिए कोशिश शुरू की और 14 महीने बाद आखिर उसकी कोशिश रंग लायी हैं। कार्मिक एवं प्रशिक्शन विभाग ने इन अशुदि्धयों को दूर कर दिया गया है।

विधि मंत्रालय ने अधिनियम के हिंदी रूपांतरण में 34 बदलावों को शामिल किया है। इसे जल्द ही मंत्रालय के साथ-साथ कार्मिक विभाग की वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया जाएगा। विभाग के निदेशक के.जी. वर्मा ने बताया कि विधि मंत्रालय ने शुदि्धपत्र तैयार कर लिया है। आरटीआई अधिनियम के मूल अंग्रेजी संस्करण में पब्लिक अथॉरिटी को ऐसे किसी प्राधिकार, निकाय या संस्थान के तौर पर परिभाशित किया गया है जो केंद्र और राज्य सरकारों के तहत आता है। वहीं हिन्दी अनुवाद में इसे केंद्र के स्वामित्व, नियंत्रण या वित्तपोषण वाले निकाय के तौर पर परिभाषित किया गया है। इसने राज्य सरकार के अधिकारियों को सूचना न देने का बहाना दे दिया था।

इसके अतिरिक्त भी हिन्दी संस्करण में कई त्रुटियां थीं। पिछले साल अप्रैल में सेवानिवृत्त कोमोडोर लोकेश बत्रा ने इस ओर ध्यान दिलाया था। बत्रा ने प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ-साथ मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला को इस मुद्दे पर पत्र लिखा। जब उनके आवेदन पर कोई जवाब नहीं मिला तो उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में आरटीआई आवेदन दाखिल किया और अपनी शिकायत पर की गयी कार्रवाई का विवरण मांगा। पीएमओ के जवाब से असंतुष्ट बत्रा ने केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की। इस पर प्रधानमंत्री कार्यालय के मुख्य सूचना अधिकारी ने कहा कि उन्होंने इस मुद्दे पर डीओपीटी को पत्र लिखा है।

पत्र तो लिखा गया लेकिन एक साल तक आवेदन ऐसे ही फाइलों में पड़ा रहा और ठोस कार्रवाई नहीं की गयी। बत्रा ने अबकी जून में डीओपीटी में आरटीआई दाखिल कर कार्रवाई के बारे में पूछा। इस आवेदन के बाद गेंद इधर-उधर घूमने लगा और आखिरकार विधि मंत्रालय ने इसमें संशोधन कर दिया।

सोमवार, 22 जून 2009

आरटीआई की जानकारी के लिए नया पोर्टल

सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत जानकारी हासिल करने के लिए उसकी प्रक्रिया जानना आवश्यक है। आम तौर पर लोगों को यह प्रक्रिया पता नहीं होती, जिस कारण चाहकर भी लोग इस कानून का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। इसी को ध्यान में रखकर एक समूह ने नये तरह का पोर्टल विकसित किया है। यह पोर्टल सरकारी नहीं है। चंडीगढ़ स्थित यह समूह सूचना का अधिकार कानून के बारे में लोगों में जागरूकता फैलाना चाहता है।

आरटीआई यूजर्स एसोसिएशन द्वारा विकसित www.rightto.info नामक इस पोर्टल का लक्ष्य देशभर में आरटीआई का इस्तेमाल करनेवालों का एक मजबूत नेटवर्क विकसित करना है। एसोसिएशन के समन्वयक हेमंत गोस्वामी के अनुसार, उन्होंने यह मंच इसलिए बनाया है ताकि देशभर में आरटीआई का इस्तेमाल करनेवाले लोग अपनी जानकारी और निष्कर्षों का आपस में आदान-प्रदान कर सकें।

यह संगठन उन्हें व्यापक सार्वजनिक हित वाली विभिन्न तरह की गतिविधियों को संचालित करने और उसे बढ़ावा देने के लिए एक सहज मंच मुहैया कराएगा।

सोमवार, 1 जून 2009

अमेरिका में सार्वजनिक दस्तावेज भारत में गोपनीय

सूचना का अधिकार कानून के तहत मांगी गयी सूचना के बाद एक सरकारी हास्यास्पद तथ्य सामने आए हैं। अमेरिकी सरकार ने जिस सूचना को सार्वजनिक कर दिया है, भारतीय विदेश मंत्रालय उसे गोपनीय बनाए हुए है। यह मामला इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में 1972 में एक भेदिया होने से जुड़ा है।

केंद्रीय सूचना आयोग की ओर से इस मामले में सूचना प्रदान करने का निर्देश मिलने के बाद विदेश मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि तत्कालीन विदेशमंत्री स्वर्ण सिंह और अमेरिकी सचिव विलियम रोजर्स के बीच 5 अक्टूबर 1972 को हुई बातचीत के रिकॉर्ड उपलब्ध थे लेकिन गोपनीयता का दावा करते हुए उसने इसका खुलासा करने से इनकार कर दिया।

यह सूचना `सीआईएजआई ऑन साउथ एशिया ´ के लेखक अनुज धर ने आरटीआई के तहत मांगी थी। पुस्तक में इस मामले का विवरण है। हालांकि, मंत्रालय ने इसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह विदेशी सरकारों, अखबारों और पुस्तकों की खबरों का संज्ञान नहीं ले सकती है क्योंकि वे अप्रमाणिक हैं। धर ने एक समाचार एजेंसी से कहा, `जहां मंत्रालय गोपनीयता शर्त का दावा कर रहा है वहीं अमेरिकी सरकार ने सिंह और रोजर्स के बीच इंडियन एलिगेशंस रिगार्डिंग शीर्षक से बातचीत का ब्यौरा सार्वजनिक कर दिया है।´ जासूस मामले ने उस समय तहलका मचा दिया था जब यह बात सामने आयी कि एक वरिष्ठ भारतीय मंत्री कथित तौर पर कैबिनेट की बैठकों से संबंधित अहम जानकारी सीआईए को लीक कर रहा था।

धर द्वारा प्रदान सार्वजनिक दस्तावेज में दोनों नेताओं के बीच बातचीत का सारांश है। इसमें रोजर्स ने भारत में सीआईए की गतिविधियों को लेकर सार्वजनिक बयान देने के लिए भारत सरकार की आलोचना की थी। धर ने आरटीआई के तहत जानकारी मांगी थी कि पत्रकार सेमुअर हर्ष की पुस्तक `द प्राइस ऑफ पॉवर : किसिंजर इन द निक्सन व्हाइट हाउस´ में लगाये गये आरोपों से जुड़ा अगर कोई रिकॉर्ड हो तो उसकी फोटो प्रति उपलब्ध करायी जाए।

मंगलवार, 26 मई 2009

प्रधानमंत्री के लिए निजी डॉक्टर क्यों

कभी समाजवादी नेता डा। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि उन्हें भी वही सुविधा चाहिए जो आम आदमी को मयस्सर है। अपनी इसी नीति के कारण उन्होंने सरकारी अस्पताल में इलाज करवाया और इसी दौरान डॉक्टरों की कुछ गलती से उनकी मौत भी हो गयी। उनका अंतिम संस्कार भी उनकी इच्छानुसार विद्युत शवदाह गृह में ही किया गया ताकि कोई तामझाम न हो और न ही कोई स्मारक बने। दिल्ली में नेताओं के लिए अंत्येष्टि स्थलों की भव्यता देख कर ही लोहिया ने कहा था कि ऐसा रहा तो एक दिन दिल्ली श्मशानों की नगरी बन जाएगी।

लेकिन उनके बाद भी वह परंपरा कायम रही और तमाम बड़े नेताओं के मरने के बाद उनके नाम पर कई-कई एकड़ों में समाधि स्थल बनाए गए। सत्ताधारी पार्टी के नेता तो नजला जुकाम होने पर विदेश इलाज के लिए दौड़ते ही थे, सत्ता में आने या करीब पहुंचने पर लोहिया की धारा के और दूसरे विपक्षी नेता भी अमेरिका की दौड़ इलाज के लिए लगाने लगे। इतना ही नहीं अगर नेताओं का इलाज देश में भी हो रहा हो तो स्पेशल तौर पर देश- विदेश से निजी डॉक्टर बुलाने की अपसंस्कृति भी विकसित हुई। अटल जी के घुटने का ऑपरेशन हुआ तो अमेरिका से डॉक्टर आए तो वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह की बाईपास सर्जरी के लिए भी निजी डॉक्टर बुलाए गए।

इस पर एक आरटीआई आवेदक जगदीश चंदर जेटली ने सूचना का अधिकार कानून के तहत जानकारी मांगी कि प्रधानमंत्री की सर्जरी निजी डॉक्टर डॉ। रमाकांत पांडा और एशियन हार्ट इंस्टीट्यूट की उनकी टीम से क्यों करायी गयी, जबकि एम्स के पास इसकी सारी सुविधाएं और विशेशज्ञता उपलब्ध है। इसपर एम्स का जवाब टालमटोल का रहा। तब आवेदक केंद्रीय सूचना आयोग में अपील मे आए। डॉ. सिंह की इसी साल 24 जनवरी को एम्स में कोरोनरी आर्टरी बाइपास सर्जरी हुई है।

दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद सूचना आयुक्त् अन्नपूर्णा दीक्षित ने पूछा कि डॉ। पांडा को सर्जरी करने के लिए बुलाने के फैसले पर कैसे पहुंचा गया और इसके क्या कारण थे ? अगर इस संबंध में कोई बैठक हुई तो उस बारे में भी 20 जून तक आवेदक को जानकारी मुहैया करायी जाए।

जेटली ने सीआईसी में दलील दी कि एम्स ने जानकारी दी थी कि प्रधानमंत्री की जिस तरह की सर्जरी की गयी उसकी विशेशज्ञता उसके पास है। फिर डॉ। पांडा की विशेषज्ञता के बारे में एम्स को कोई जानकारी भी नहीं है। जेटली ने आरोप लगाया कि यह अकल्पनीय है कि एम्स ने डॉ. पांडा की विशेषज्ञता जाने बगैर प्रधानमंत्री का आपरेशन करने की उन्हें इजाजत दे दी।

हालांकि एम्स का पक्ष था कि निजी डॉक्टर बुलाने का उसके यहां कोई खास नियम नहीं है। नियम में कहा गया है कि मरीज के हित में संस्थान मे निदेशक कोई भी प्रशासनिक निर्णय लेने में सक्षम है। लेकिन क्या यह भी जानने लायक बात नहीं है कि एम्स सामान्य मरीजों के लिए भी ऐसे निर्णय लेता है ?

साली का ब्यौरा आरटीआई से, कितना उचित

सूचना का अधिकार कानून तमाम सकारात्मक पहलुओं के साथ कुछ गलत कामों का भी जरिया बन गया है। मसलन, इस कानून का उपयोग कर अब लोग निजी खुन्नस निकालने लगे हैं। यह कहना है केंद्रीय सूचना आयुक्त एम।एम. अंसारी का। हालांकि इसमें जो उदाहरण आयोग ने दिया है, वह किसी भी तरह से निजी नहीं है बल्कि सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता से जुड़ा है, जिसे प्रोत्साहित करने के लिए यह कानून बनाया गया था, लेकिन इसका उद्देश्य निजी ही है। ऐसे मामलों को किस तरह से निपटाया जाए, यह एक ज्वलंत सवाल है।

अंसारी ने ऐसे ही एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि इस कानून का दुरुपयोग पारिवारिक झगड़े या निजी खुन्नस निकालने में व्यापक पैमाने पर किया जा रहा है। इनमें तलाक और हर्जाने के दावे जैसे मामले भी हैं। घटना के अनुसार, दिल्ली के आई।पी. अग्रवाल ने वाणिज्य विभाग में कार्यरत अपनी साली के वैयक्तिक और सरकारी ब्यौरे की सूचना मांगी। दरअसल अग्रवाल का अपनी पत्नी से झगड़ा चल रहा है और इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने साली की सूचना मांगी है। विभाग ने यह कहते हुए सूचना देने से इनकार कर दिया कि यह सूचना निहायत ही निजी है। हालांकि अंसारी ने भी विभाग के नजरिए से सहमति जतायी लेकिन यह भी कहा कि इसे रोकना असंभव है।

यहां सवाल यह है कि अग्रवाल की साली के सरकारी ब्यौरे भी सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता से जुड़े ही माने जाएंगे। लेकिन ऐसे मामलों में फर्क कैसे किया जा सकता है कि सूचना मांगने वाला निजी खुन्नस निकालने के लिए मांग रहा है या पारदर्शिता सार्वजनिक करने के तहत। कुछ भी अगर एक मामले में सूचना आयोग व्यक्तिगत गुण-दोश के आधार पर इस तरह की सूचना दिलवाने से रोकेगा तो यह उन मामलों में नजीर के तौर पर पेश किया जाएगा जहां सार्वजनिक तौर पर पारदर्शिता के लिए सूचना सार्वजनिक करना अति आवश्यक भी होगा। इसलिए इस मामले में अग्रवाल की साली से संबंधित सरकारी ब्यौरे को सार्वजनिक किया जाए और निजी ब्यौरा देने से इनकार कर दिया जाए.

सोमवार, 25 मई 2009

काले धन पर आडवाणी से सीआईसी ने मांगी सफाई

केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने लोकसभा में नेता विपक्ष लालकृश्ण आडवाणी के कार्यालय को उन कारणों को बताने का निर्देश दिया है, जिसके चलते वह स्विस बैंक में भारतीय काले धन के संबंध में श्री आडवाणी, प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह और केंद्रीय वित्तमंत्री के बीच हुई खतो-किताबत की जानकारी देने से इंकार कर दिया है।

सीआईसी के उप सचिव पंकज श्रेयस्कर ने जन सूचना अधिकारी सुभाष अग्रवाल की शि़कायत पर जन सूचना आयुक्त को लिखा, `आयोग आपको निर्देश देता है कि इस िशकायत पर टिप्पणी करें ... सूचना उपलब्ध नहीं कराने की वजह को स्पष्ट रूप से बताएं। अग्रवाल ने नेता विपक्ष के कार्यालय में आरटीआई के तहत आवेदन देकर पूर्व गृहमंत्री व उप प्रधानमंत्री रह चुके आडवाणी द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे पत्र और उस पर वित्तमंत्री के जवाब की विस्तृत जानकारी मांगी।

आवेदक ने स्विस बैंकों में भारतीयों के जमा काले धन के संबंध में उन पत्रों और उनके उत्तर, फाइल टिप्पणियों और इस मुद्दे से जुड़े सभी दस्तावेजों की प्रतियों की मांग की थी। विपक्ष के नेता के कार्यालय की ओर से अग्रवाल को कोई जवाब नहीं दिए जाने पर उन्होंने केंद्रीय सूचना आयोग से िशकायत की। यह मामला चुनाव पूर्व प्रचार अभियान के दौरान सामने आया जब भाजपा नेता ने स्विस बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने के प्रयास करने का वादा किया।

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

मोबाइल और इंटरनेट हैं आत्महत्या के कारण

क्या मोबाइल फोन और इंटरनेट आईआईटी छात्रों की आत्महत्या का कारण हैं ? अधिकारियों की माने तो यह सही है। पर इसके और भी कारण हैं। आईआईटी अधिकारी यह नहीं मानते कि पाठ्यक्रम बहुत कठिन है अथवा पढ़ाई का बहुत अधिक दबाव है। उनका कहना है कि आत्महत्या की वजह है अधिक से अधिक पारिवारिक दबाव जो आज के मोबाइल और इंटरनेट के कारण है। यह पहले नहीं था।

सूचना का अधिकार कानून के तहत पूछे गए सवालों के जवाब में आईआईटी ने बताया है कि असली अपराधी मोबाइल है। आज से दस साल पहले मोबाइल फोन का अधिक प्रयोग नहीं होता था। छात्र मोबाइल का प्रयोग न के बराबर करते थे। तब वे अपना ध्यान पढाई पर केंद्रित करते थे। लेकिन आज वे रात-दिन मोबाइल पर ही व्यस्त रहते हैं। परिवार व दोस्तों से मोबाइल संपर्क के कारण वे हमेशा पारिवारिक समस्याओं और तनावों से उलझे रहते हैं। जवाब में आत्महत्या का दूसरा कारण इंटरनेट को बताया गया है। हालांकि, आईआईटी दिल्ली के निदेशक सुरेन्द्र प्रसाद कहते हैं कि जबतक ठोस अध्ययन न हो तब तक उनकी आत्महत्या की वजह को मोबाइल या इंटरनेट से नहीं जोड़ा जा सकता।

आईआईटी एल्यूमनी भारत पुनर्निर्माण दल की तोया चटर्जी ने एक छात्र की आत्महत्या के बाद इस संबंध में 2 जून को आरटीआई के तहत आईआईटी कानपुर से जानकारी मांगी थी। बीते तीन साल में आईआईटी कानपुर के छह छात्रों ने आत्महत्या की है।